३ मार्च, १९७१

  

   मुझे लगता है कि आपकी दृष्टि बहुत बदल गयी है ।

 

       (माताजी स्वीकृतिमें सिर हिलाती हैं)

 

   साल-भरसे ऊपर हो गया, वह ज्यादा-ज्यादा श्रीअरविन्दके लग रही है ।

 

अच्छा!...(सस्मित) संभव है!

 

   पहले आपकी दृष्टि ''हीरेके जैसी'' थी -- वह...... आप थीं, शक्तिशाली रूपसे आप । अब, वह अनंतके होती जा रही है ।

 

 ओ ! मेरे देखनेका तरीका भी वही नहीं है ।

 

  जी, यही बात है । मैं यह पूछना चाहता था कि जब लोगोंको इस तरह देखती है तो उनमें क्या देखती है?

 

 मेरा ख्याल है कि मैं... ज्यादा ठीक रूपसे कहूं तो उनकी अवस्था देखती हू । वह अवस्था देखती हू जिसमें वे है । विशेषकर कुछ हैं जो बंद मालूम होते हैं, जहांतक मेरा संबंध है, वे देखते हीं नहीं, जो पूरी तरह अपनी बाह्य चेतनामें रहते हैं; और फिर, ऐसे लोग है जो खुरने हुए हैं -- ऐसे... कुछ बच्चे, यह अद्भुत है -- जो मानों बिलकुल खुले हुए हैं (सूर्यकी ओर खिलते हुए फुलकी मुद्रा), जो आत्मसात् करनेके न्ठिये तैयार होते हैं । मैं विशेष रूपसे लोगोंकी ग्रहणशीलता देखती हू, वे जिस अवस्थामें, है उसे देखती हू. जो लोग अभीप्साके साथ आते है, जो कुतूहलके साथ आते हैं, जो.. एक प्रकारसे बाध्य होकर आते है, और फिर, जो प्रकाशके लिये प्यासे है -- ऐसे अधिक नहीं होते, लेकिन पैसे बच्चे कई हैं । आज मैंने देखा था जो मनोहर: था!... ओ, अद्भुत!

 

    मै केवल यही देखती हू । मै यह नहीं देखती कि वे क्या सोच रहे

 


है, क्या कहते हैं (यह सब मुझे ऊपरी और उबाऊ लगता है), मै यही देखती हू कि वे ग्रहणशीलताकी किस अवस्थामें हैं । मै विशेष रूपसे बस यही देखती हूं ।

 

 (मौन)

 

   मुझे लगता है कि हमें बच्चेमें ही ऐसे लोग मिलेंगे जो नयी जातिका आरंभ कर सकते हैं । पुरुषोंपर तो.. पपड़ी चढ़ गयी है ।

 

  मै' सदा ऐसे लोगोंके विरुद्ध संघर्षमें लगी रहती हू जो यहां आरामसे रहनेके लिये आये हैं ताकि ''जो मरज़ी कर सकें''.. तो... मै उनसे कहती हू. ''संसार काफी बन्दा है, तुम बाहर जा सकते हों'' -- वहां न अंतरात्मा होती है, न अभीप्सा, कुछ भी नहीं ।

 

  तुम मेरी भावना जानते हों? वे सब बूढ़े है । सिर्फ मैं ही युवा हू । हां, यह वही है, वह लौ, वह इच्छा... वह जिसे वे ''उत्साह'' कहते है -- छोटी-मोटी व्यक्तिगत तुष्टियोंसे संतुष्ट रहें.. जो तुम्हें कहीं नहीं पहुंचाती और इसीमें लगे रहें कि क्या खायंगे, ओह!...

 

  मुझे लगता है कि अब एक प्रकारका ''प्रदर्शन'' है (जानते हो प्रदर्शन क्या होता है?), उन सब चीजोंका प्रदर्शन जो नहीं होनी चाहिये ।

 

   जी हां ।

 

लेकिन ज्वाला, अभीप्साकी ज्वाला (माताजी सिर हिलाती हैं), ऐसे बहुत नहीं है जो इसे लेकर आते हों ।

 

  शर्त बम यही है कि वे जिसे ''आराम'' कहते है उस तरह आरामसे रह सके -- और कुछ ऐसी मूर्खताएं कर सकें जिन्हें वे संसारमें नहीं कर सकते!.. दुसरी ओर, ऐसा लगता है कि आगमनको जल्दी लानेके लिये. -- उसे जल्दी लाया जा सकता है अगर हम... अगर हम विजेता हों!

 

 सच्ची आध्यात्मिकता बहुत सरल होती है ।

 

( ६-३- ११७१)

 

२२९